Tuesday, August 25, 2020

जिस लड़के का चाचा कारगिल में लड़ा, उसे आतंकी बता कश्मीर में एनकाउंटर किया, एक का तो पिछले महीने ही डोमेसाइल बना था

‘अगर हमारे लड़के मिलिटेंट थे, तो उनकी मौत का हमें कोई गम नहीं। हमें उनकी बॉडी भी नहीं चाहिए। लेकिन, अगर वो मिलिटेंट नहीं थे तो हमें उनकी बॉडी भी चाहिए और जिम्मेदारों पर कड़ी कानूनी कार्रवाई भी। हमें भी तो पता चले कि महज एक रात में कोई कैसे मिलिटेंट बन सकता है?' यह दर्द शिफत जान का है। वो मोहम्मद अबरार की मां हैं। 18 जुलाई को शोपियां में जिन तीन लड़कों का एनकाउंटर हुआ है, उनमें 16 साल का अबरार भी शामिल था। उसके अलावा दो और लड़के थे, एक 21 साल का इम्तियाज अहमद और 25 साल का अबरार अहमद। आर्मी ने इन्हें मिलिटेंट बताया था। हालांकि, अब इस मामले में हाई लेवल कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी चल रही है।

तीनों लड़कों के एनकाउंटर के बाद उनके परिवारों में मातम छाया है।

तीनों लड़कों के एनकाउंटर के 36 दिन बाद भी अभी तक परिवारों को कोई ऐसा सबूत नहीं दिया गया है, जिससे यह साबित हो कि यह तीनों मिलिटेंट थे। ये लोग आपस में रिश्ते में थे। शोपियां में काम की तलाश में सबसे पहले इम्तियाज अहमद गया था। करीब एक महीने बाद उसने मोहम्मद अबरार और अबरार अहमद को भी आने को कहा। ये लोग 16 जुलाई को शोपियां गए। 17 जुलाई को इन्होंने परिवार को फोन पर बताया कि हम सही-सलामत पहुंच गए हैं। कमरा भी ले लिया है। फिर इन लोगों का फोन बंद हो गया और 18 जुलाई को हुए एनकाउंटर में मार दिए गए।

परिवार का कहना है कि अगर ये आतंकी निकले तो हम इनके शव भी नहीं मांगेंगे।

परिवार को इनकी मौत की खबर 9 अगस्त को तब मिली, जब एनकाउंटर की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हुईं। अबरार अहमद के पिता को एक मीडियाकर्मी ने फोन पर फोटो दिखाई, तो तुरंत समझ गए कि यह उनके लड़के ही हैं। 10 जुलाई को परिजनों ने थाने में मिसिंग रिपोर्ट दर्ज करवाई।

11 अगस्त को इन लोगों के परिजन डीजीपी दिलबाग सिंह, एसएसपी चंदन कोहली और एएसपी लियाकत अली से मिले थे। 13 अगस्त को पुलिस ने डीएनए कलेक्ट किया। यह सिर्फ इनकी पहचान की पुष्टि करेगा। हालांकि, परिजन फोटो देखकर समझ चुके हैं कि यह उनके ही लड़के हैं। इसलिए डीएनए रिपोर्ट वही आएगी।

परिजनों को डीएनए रिपोर्ट से ज्यादा इंतजार उस रिपोर्ट के आने का है, जो 18 जुलाई को हुए एनकाउंटर का सच सामने लाए। पुलिस ने किन सबूतों के आधार पर मारा? पूछताछ क्यों नहीं की? मिलिटेंट हैं, इसकी पुष्टि कैसे की? ऐसे तमाम सवाल परिजनों के मन में चल रहे हैं। इन लोगों को तो अभी तक यह भी नहीं पता कि बच्चों की डेडबॉडी आखिर रखी कहां है? उसे दफना दिया गया है या कहीं रखा गया है? 13 अगस्त को परिजनों से कहा गया था कि दस-बारह दिन में डीएनए की जांच रिपोर्ट आ जाएगी और एनकाउंटर की सच्चाई भी। अभी इन दोनों ही चीजों का इंतजार है।

एनकाउंटर में मारे गए तीनों लड़कों की मां अब तक सदमे में हैं। वो अपने बच्चे को आखिरी बार देखना चाहती हैं।

थाने में मिसिंग रिपोर्ट दर्ज करवाने वाले नसीब ने बताया कि जब लड़कों के फोन बंद आए तो हमें लगा कि अभी कोरोना का दौर चल रहा है। ऐसा हो सकता है कि इन लोगों को क्वारैंटाइन कर दिया गया हो। इसलिए हमने भी बार-बार फोन नहीं किया और कहीं रिपोर्ट भी दर्ज नहीं करवाई।

अबरार अहमद के पिता पहाड़ी पर मवेशी चराने गए थे। हर साल गांव के लोग मवेशियों को लेकर ऊपर ही जाते हैं, क्योंकि नीचे जानवरों को खिलाने को कुछ नहीं होता। वो 9 अगस्त को गांव लौटे। तभी उन्हें एक मीडियाकर्मी मिला। जिसने फोन पर वायरल हो रही तस्वीरें दिखाईं। फोटो देखते ही समझ गए कि एनकाउंटर में मारे गए लड़के हमारे हैं। जबकि, मोहम्मद अबरार के पिता तो अभी भारत लौटे भी नहीं हैं। वो सऊदी अरब में हैं। वहीं मजदूरी करते हैं। लॉकडाउन के पहले से ही वहां हैं। 9 अगस्त को जब फोटो सामने आईं तो पूरे गांव में आग की तरह फैल गई। घरों में आसपास के लोगों की भीड़ लग गई, क्योंकि लड़कों का कोई क्रिमिनल बैकग्राउंड नहीं रहा। पढ़ने-लिखने और कामकाज वाले रहे हैं, इसलिए हर किसी को इस खबर ने चौंका दिया।

ये मोहम्मद अबरार के घर की तस्वीर है। मजदूरी करके ये लोग गुजारा करते हैं।

मोहम्मद अबरार ने तो 4 जुलाई को ही मूल निवासी प्रमाण पत्र बनवाया था। इसमें उसकी उम्र 25 फरवरी 2004 बताई गई है। उसके दोस्त मोहम्मद सलीम ने बताया, मैं बचपन से उसके साथ रह रहा हूं। कभी किसी ऐसी एक्टिविटी में वो शामिल रहा ही नहीं, क्योंकि हमारा तो सुबह 6 से शाम 6 बजे तक का पूरा टाइम स्कूल आने-जाने में ही लग जाता है। हमारे गांव में अभी आठवीं तक स्कूल आया है, पहले पांचवीं तक ही था। हम लोग पढ़ने दूसरे गांव में जाया करते थे। रास्ता पैदल तय करना होता था, इसलिए आने-जाने में दो-दो घंटे का समय लगता था। बाकी टाइम स्कूल में ही रहते थे। बाहर के लोगों से मिलना-जुलना कम ही हो पाता था। अब पूरे गांव में यही बात चल रही है कि पुलिस ने हमें डेडबॉडी नहीं दी तो इसके बाद कैसा विरोध होगा?

मोहम्मद अबरार ने पिछले महीने ही डोमेसाइल सर्टिफिकेट बनवाया था।

मोहम्मद अबरार की अम्मी कहती हैं, लॉकडाउन में सब बंद था। वो शोपियां गया था, ताकि काम करके कुछ पैसे जोड़ ले, जिससे आगे की पढ़ाई कर सके। वो पढ़ने में अच्छा था। उसने पिछले साल 10वीं में 500 में से 279 नंबर हासिल किए थे। लॉकडाउन के पहले से ही वहां मजदूरी करके पैसा कमाता था। हम लोग मजदूर परिवारों से हैं। राजौरी के सोशल एक्टिविस्ट गुफ्तार अहमद चौधरी ने इन तीनों लड़कों के परिजनों से बात की है। अम्मी, अब्बू सभी का वीडियो बनाया है और सोशल मीडिया पर शेयर भी किया है।

ये अबरार की दसवीं की मार्कशीट है। उसने 500 में से 279 अंक हासिल किए थे।

गुफ्तार बताते हैं, अबरार अहमद तीन साल कुवैत में भी रहा है। उसका महज 15 महीने का बेटा है। कुछ ही दिनों पहले उसका घर बना है। लेकिन, पैसे नहीं होने के चलते घर में प्लास्टर नहीं हुआ था। वो शोपियां गया ही इसलिए था ताकि कुछ पैसे जोड़ ले और घर में प्लास्टर का काम पूरा करवा सके। उसका सगा चाचा कारगिल की लड़ाई में लड़ा है। अभी भी उसके परिवार के कई लोग आर्मी में हैं। ऐसे में बिना किसी पूछताछ के सीधे गोली मार देना कहां का न्याय है?

गुफ्तार कहते हैं, लोकल थाने से लेकर ऊपर तक पूरी जांच की जाए। इनके खिलाफ कहीं कोई मामला नहीं मिलेगा। इनका कोई क्रिमिनल बैक्रग्राउंड नहीं रहा। ऐसे में एनकाउंटर पर सवाल उठना लाजिमी है। अबरार अहमद के पिता युसूफ कहते हैं, मेरा बेटा 16 को घर से निकला था। 17 को शोपियां पहुंचा। 18 को मार दिया गया। उसके मिलिटेंट होने का कोई भी सबूत मिलता है तो मैं उसका जवाबदार हूं। मुझे पता है मेरा बच्चा बेकसूर है। मुझे इंसाफ चाहिए। बच्चे को मारने से कुछ नहीं होगा।

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