गलवान इलाके में 15-16 जून की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के पीछे की बड़ी तस्वीर को अब देखा जाना चाहिए और सोचना चाहिए कि इसका भारत-चीन संबंधों के भविष्य पर क्या असर होेगा। सवाल यह है कि क्या चीन के इस पागलपन के पीछे कोई खास तरीका छिपा है? विश्वास पर अपनी निर्भरता के चलते भारत ने एक नैतिक राष्ट्र बने रहना जारी रखा है।
जब उसका सामना ऐसे विरोधियों से होता है, जिनकी दस्तावेजों में लिखी बातों को मैदान पर मानने की मंशा नहीं दिखती, तब भी वह नैतिकता व विश्वास पर भरोसा जारी रखता है। चीन ने दुनिया को बता दिया है कि नियम-आधारित व्यवस्था का सम्मान न करना उसकी प्रवृत्ति है, जो रणनीति स्तर पर भी नजर आती है।
चीन की हरकतों के पीछे तीन मुख्य कारक लगते हैं। पहला, शी जिनपिंग की चीन को तेजी से निर्विवाद सर्वश्रेष्ठता की स्थिति में पहुंचाने की निजी महत्वाकांक्षा। वे कोविड-19 की स्थिति और उसके अंतरराष्ट्रीय प्रभाव को ऐसे ही कदम उठाने के अवसर की तरह देख रहे हैं। इसलिए पुराने भाईचारे और सहयोग को भूलकर, इस नई मंशा को बेरहमी से अपना रहे हैं।
दूसरा, डोकलाम मामले से चीन को मनोवैज्ञानिक छवि का नुकसान हुआ है, जिस मामले ने उसे भारतीय सेना द्वारा हराए जाने की अनुभूति के साथ छोड़ दिया था। इसे शायद उसकी सर्वश्रेष्ठ होने की इच्छा को खतरे की तरह देखा गया। छवि को हुए इस तथाकथित नुकसान की भरपाई के लिए उसे सीमित सैन्य कार्रवाई और सूक्ष्म रणनीतिक संदेश देने की जरूरत लगी।
तीसरा, उसे लगा कि सैन्य कार्रवाई को रणनीतिक स्तर पर प्रदर्शित करना ही अच्छा होगा, जिससे विरोध भड़कने की स्थिति में पीएलए आगे रहेगी। स्वाभाविक है कि पिछले 10 साल से बन रही दरबुक-डीबीओ रोड अचानक पीएलए को लद्दाख के श्योक-काराकोरम-सियाचीन भूभाग को हथियाने की उसकी मंशा को खतरा लगने लगी।
वह यह भूभाग गिलगित बल्तिस्तान क्षेत्र से ग्वादर के बीच आने-जाने की चुनौती का विकल्प पाने हथियाना चाहता है। चीन पिछले तीन सालों में हुए उन घटनाक्रमों के बारे में भी अनिश्चित लगता है, जिनसे उसे लगा कि भारत को रणनीतिक आत्मविश्वास का उच्च स्तर मिला है।
डोकलाम 2017, आर्टिकल 370 का हटना, गिलगित बल्तिस्तान और स्पष्ट रूप से अक्साई चीन तक को वापस लेने की भारत की मंशा और शुरुआत से ही ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल के विरोध ने भारत को चीन के नए ‘वुल्फ वॉरियर’ सिद्धांत के निशाने पर ला दिया है। यह कथित रूप से चीन के प्रति विद्रोही और असम्मानजनक रवैया रखने वाले राष्ट्रों को जानबूझकर पीछे धकेलने का सिद्धांत है।
यह सिद्धांत उन संभावित आलोचकों और प्रतिस्पर्धियों के रणनीतिक आत्मविश्वास को नुकसान पहुंचाने का प्रयास भी है, जो चीन की महानता की होड़ के खिलाफ हैं। इसके लिए वह अलग-अलग क्षेत्रों में कई पैंतरेबाजियां कर रहा है।
मौजूदा कूटनीतिक भाईचारे, आर्थिक प्रोत्साहन और बहुपक्षीय सहयोग से अलग सीमित सैन्य कार्रवाई, उसकी मंशा को अस्पष्ट करने और विरोधी को भ्रमित करने में चीन की मदद करता है। लगता है कि वह भारत को ऐसा ही राष्ट्र मानता है।
धमकाने के लिए बंदूकों की जगह कामचलाऊ हथियारों का इस्तेमाल कर विरोधी पर नैतिक वर्चस्व स्थापित करना, चीन की जोखिम कम करने की समझ है। उसकी समग्र रणनीति का एक जरूरी तत्व समझौतों और नियमों को लागू न करना भी है। विरोधी का संतुलन बिगाड़े रखने, उसे भ्रमित बनाए रखने की मंशा से वह टकराव जारी रखता है।
यह सबकुछ मई-जून के दौरान मैदान पर किया जा रहा था और सब उसकी योजना के मुताबिक चलता रहता, लेकिन फिर गलवान की घटना हो गई। भारतीय सेना के जवाब से उसकी सारी गणना बेकार हो गई। हालांकि ऐसा लगता है कि सारा घटनाक्रम पीएलए के थियेटर कमांडर जनरल झाओ झॉन्गकी के इशारे पर हुआ, जिन्हें कथित रूप शी जिनपिंग ने चुना था।
झाओ झॉन्गकी संघर्ष खत्म करने को लेकर अस्पष्ट लगते हैं। इसलिए चीनी खुद को सैन्य बातचीत और राजनयिक चर्चाओं में शामिल करते हैं, टकराव वाली जगहों पर डिसएंगेजमेंट का वादा करते हैं लेकिन इसी के साथ गतिरोध वाले नए इलाकों में छल करते हैं और दिखाते हैं कि जिसपर सहमति बनी है, उसे लागू करने की उनकी मंशा नहीं है।
यह भी भड़काने की रणनीति है। युद्ध लड़ना अभी भी चीन की मंशा नहीं लगती। मनोवैज्ञानिक युद्ध उसका मुख्य साधन है।भारत भी आत्मविश्वास से भरा है। उसके पास अपने हितों की रक्षा करने के लिए जरूरी क्षमता व साधन हैं। यह बुद्धि और शक्ति में बने रहनेका खेल है, जिसमें गतिरोध के कुछ बिंदुओं पर रणनीति के स्तर पर संघर्ष हो सकता है, जो शायद युद्ध में न बदले।
भारत में इससे उबरने की इच्छाशक्ति और राष्ट्रीय सर्वसम्मति है। उसे सक्रीय कूटनीति जारी रखनी चाहिए और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी साथ रखना चाहिए। साथ ही सेना को भी लंबी दौड़ के लिए तैयार रखना चाहिए। सर्वसम्मति, आगे बढ़ने के हौसले और रणनीतिक आत्मविश्वास की शक्ति से अंतत: ड्रैगन को आंखें झुकानी पड़ेंगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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